लेखक डॉ त्रिभुवन सिंह
उप प्रधानाचार्य राष्ट्रीय इंटर कालेज शेरपुर मिर्जापुर
सभ्यता और संस्कृति
सभ्यता और संस्कृति ही ननुञ्यता का वास्तविक लक्षण है। मनुष्य जाति के लाखों वर्ष का इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसने उत्पादन के साधनों और तरीकों का आविष्कार करके तथा समाज का संगठन करके अपने शारीरिक सुख और मानसिक आनन्द की सुविधायें एकत्र की है। पशु ऐसा नहीं कर सका है। मनुष्य के ऐसे सभी कार्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, उनमें से एक भाग का नाम सभ्यता है और दूसरे का संस्कृति।
सभ्यता क्या है ?
मनुष्य की शारीरिक सुख-सुविधाओं से सम्बन्धित समस्त क्रिया-कलापों का ही नाम सभ्यता है। सभ्यता बाह्य और भौतिक वस्तु है जिसका मूल आधार विज्ञान है। मनुष्य ने अपनी बुद्धि द्वारा आज तक जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार किए हैं, उनसे उसके सुख-साधनों की वृद्धि हुई है। उन सबको सभ्यता का लक्षण माना जाता है। भारतीय दृष्टि से सभ्यता का अर्थ है सामाजिता अथवा नागरिकता। सभा में बैठने वाले शिष्ट नागरिक को ही सभ्य कहा जाता था। इस दृष्टि से मनुष्य के उन बाह्य और आंतरिक आधार-विचारों को, जिन्हें सामाजिक मान्यता प्राप्त हो, सभ्यता कहा जा सकता है। यह परिभाषा व्यापक है और इसमें संस्कृति भी सम्मिलित है, किन्तु पाश्चात्य देशों में सभ्यता और संस्कृति दो भिन्न वस्तुएँ मानी जाती हैं।
सभ्यता दृश्यमान या स्थूल वस्तु है जो मानव और पशु के बीच के अंतर को स्पष्ट करती है। मनुष्य और पशु दोनों का जीवन प्रकृति पर ही आधारित है, अर्थात् हवा, पानी, प्रकाश, आकाश और पृथ्वी से ही दोनों अपने जीवन के उपकरण ग्रहण करते हैं। प्रकृति के अनंत कोश से पशु, जो कुछ और जितना पा जाता है, उतने से संतुष्ट हो जाता है। किन्तु मनुष्य उतने से ही संतुष्ट नहीं होता।
मानव और प्रकृति- विकास की यात्रा
वह प्रकृति से बलपूर्वक अपनी जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र करता है। इसके लिए वह प्रकृति से संघर्ष करता है और उस पर विजय प्राप्त करता है। हजारों वर्ष पूर्व मनुष्य ने गुफा में रहना, पत्थरों के औजार बनाना, पशु-पक्षी और मछलियों का शिकार करना और पशुपालन प्रारम्भ किया। जंगलों को काटकर या जलाकर खेती शुरू की, शीत, धूप और वर्षा से बचने के लिए मकान बनाया, वस्त्रों का आविष्कार किया, नगर बसाए तथा कृषि और हस्तशिल्प से संबंधित उपकरणों का आविष्कार किया।
इतना ही नहीं, उसने कबीलों में संगठित होकर रहना सीखा और सामूहिक सुरक्षा के लिए ग्राम और नगर बसाए। यातायात के साधनों जैसे नौका, रथ, गाड़ी आदि का आविष्कार किया और सामाजिक सुरक्षा के लिए राज्यव्यवस्था, वर्णव्यवस्था, वाणिज्यव्यवस्था आदि का प्रारम्भ किया। भौतिक विकास का यह क्रम निरंतर आगे बढ़ता रहा और आज वह अपने विकास के उच्च शिखर पर पहुँच चुका है।
मानव सभ्यता का विकास
युग में वह भौतिक सुख-सुविधा से संबंधित इन आविष्कारों, उपकरणों एवं पद्धतियों के अनुरूप ही मानव जाति का आधार भी बदलता रहा। मनुष्य पशु से उस समय अलग हो गया जब उसने दो पैरों पर चलना सीखा। इस तरह उसके हाथ और पैर अलग-अलग कार्य करने लगे। फिर उसने आग का आविष्कार किया जिसकी सहायता से वह भोजन पकाने और अंधेरे में रोशनी करने लगा। इस प्रकार मानव समाज के विचार और सभ्यता के विकास के साथ बदलते गए।
मानव जाति के वे वर्ग जो पशु के स्तर से ऊपर नहीं उठे थे, बर्बरावस्था में ही रह गए, जबकि अन्य वर्गों ने सभ्यता का अधिक विकास कर लिया। इस तरह मानव जाति के अंदर ही सभ्य और असभ्य दोनों प्रकार के वर्ग बन गए। आज की इस वैज्ञानिक सभ्यता के चरम विकास के युग में भी संसार के अनेक भागों में अनेक वर्ग, जातियाँ, कबीले और समूह ऐसे हैं जो जंगल, पहाड़ों, द्वीपों में रहकर असभ्यावस्था में ही अपना जीवन बिता रहे हैं। दूसरी ओर, दुनिया के प्रायः सभी देशों में सभ्य और शिष्ट समाज भी है जो सभ्यता के समस्त उपकरणों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन कर रहा है।
संस्कृति क्या होती है?
संस्कृति मनुष्य के आंतरिक दृष्टिकोण, चिंतनधारा और विचारों का नाम है। इस तरह संस्कृति सूक्ष्म और अदृश्य वस्तु है जो सभ्यता को आधार प्रदान करती है। सभ्यता यदि विज्ञानपरक है तो संस्कृति ज्ञान है। प्राचीन भारत में संस्कृति शब्द का व्यवहार नहीं होता था। उसके स्थान पर धर्म शब्द प्रयुक्त होता था, किन्तु वर्तमान समय में संस्कृति शब्द अंग्रेजी के ‘कल्चर’ शब्द के अनुवाद के रूप में प्रयुक्त होता है। पश्चात्य देशों में ‘कल्चर’ शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में नहीं होता, उसके अनेक अर्थ ग्रहण किए जाते हैं।
नृतत्वशास्त्र के अनुसार मनुष्य जो कुछ करता है, उसे सभ्यता और जो सोचता है, उसे संस्कृति कहना चाहिए। वैसे मनुष्य जो कुछ सोचता है उसी के अनुसार यह कार्य करता है। इसलिए सोचना और करना, विचार और आचार अथवा संस्कृति और सभ्यता में कोई विशेष अंतर नहीं है। किन्तु यदि नैतिकता को दृष्टि से देखा जाए तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जो कुछ भी सोचता है, उन सबको कार्यान्वित नहीं कर पाता, कभी-कभी तो वह सोचने के विपरीत कार्य करता है।
यह जो उसके सोचने की प्रक्रिया और उस चिंतनधारा की अभिव्यक्ति है, वही संस्कृति है। यह अभिव्यक्ति धर्म, नीतिशास्त्र, दर्शन, साहित्य, संगीत, कला, मूर्तिकला, स्थापत्यकला तथा जीवन विधि जैसे खान-पान, रीति-रिवाज, वस्त्राभूषण आदि के रूप में होती है। अभिव्यक्ति के सभी प्रकार मनुष्य की जिस दृष्टि, चिंतनधारा अथवा विचारधारा के परिणाम होते हैं, उनकी जो फलश्रुति होती है, उसी का नाम संस्कृति है।
पुरातत्वशास्त्र और इतिहास में संस्कृति
पुरातनशास्त्र और इतिहास में मनुष्य की बाह्य और स्थूल उपलब्धियों को ही संस्कृति मान लिया गया है। पुरातत्ववेत्ता प्राचीन मानव के पत्थर के औजारों, गुफाओं, मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों, मूर्तियों आदि को ही संस्कृति कहते हैं। इन जीवनोपयोगी उपकरणों से उनके निर्माताओं के दृष्टिकोण और विचारधारा पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ता। वस्तुतः ये उपकरण तत्कालीन मानव की सभ्यता के परिचायक हैं। उनका संस्कृति का ज्ञान हमें उनके लिखित साहित्य, धर्मग्रंथों, और कला के अन्य रूपों से प्राप्त होता है।
अथवा उनके धार्मिक और नैतिक क्रियाकलापों से ही हो सका है। समाज समस्त राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को सभ्यता के अंतर्गत ही ग्रहण किया जा सकता है। इन व्यवस्थाओं में जो दृष्टिकोण निहित होता है उसकी अभिव्यक्ति धर्म, साहित्य, कला आदि के रूप में ही होती है और उन्हीं को संस्कृति का अंग माना जाता है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मनुष्य की भौतिक और शारीरिक सुख-सुविधाओं के साधनों और सामाजिक संस्थाओं से उसकी सभ्यता का बोध होता है और उसकी मानसिक व आध्यात्मिक तृप्ति जिन साधनों और क्रियाकलापों द्वारा होती है उनसे उसकी संस्कृति का बोध होता है।
सभ्यता और संस्कृति में अंतर
सभ्यता, भौतिक और स्थूल वस्तु है और संस्कृति, मानसिक और सूक्ष्म तत्व है। सभ्य होने का लक्षण है, जीवन की स्थूल और इन्द्रियगत आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों और उपकरणों का होना। ये साधन मानवेतर प्राणियों के पास नहीं होते। पशु न तो अपने लिए वस्त्र बना सकता है और न भोजन का उत्पादन कर सकता है, न सुविधा के साधनों का निर्माण और उपयोग कर सकता है। इसीलिए वह सभ्य नहीं है।
वन्य जातियाँ भी सभ्यता के इन आधुनिक साधनों से अपरिचित होने के कारण अर्ध-सभ्य ही हैं। सभ्यता के उपकरणों का संस्कृति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए असभ्य और अर्ध-सभ्य जातियों और वर्गों में संस्कृति के अनेक तत्व वर्तमान रहते हैं। यहाँ सभ्यता और संस्कृति के अंतर-बिंदुओं पर विचार कर लेना समीचीन होगा।
- सभ्यता ऐतिहासिक रूप से परिवर्तनशील होती है और संस्कृति उपेक्षाकृत चिरस्थायी होती है। सभ्यता के विकास में मनुष्य के भौतिक सुख की प्रवृत्ति काम करती है।
- मनुष्य अपने ऐहिक सुखों की वृद्धि के लिए सदा नए-नए साधनों की खोज करता रहता है। यह प्रवृत्ति व्यक्तियों, समूहों और जातियों के बीच होड़ उत्पन्न करती है जिससे सभ्यता का विकास तीव्र गति से होता रहता है।
- इस तरह प्रागैतिहासिक काल से आज तक मानव जाति ने अपने को जीवित और सुरक्षित
मानव सभ्यता के विकास के युग
रथोथा शारीति दृष्टि से अपने को सुनाने के लिए अजय अधिकार किये है जिन्हें सभ्यता का साधन या उपकरण कहा जाता है। इन साधनों या उपरणों में जिन धातुओं का प्राधान्य होता है उनके आधार पर सभ्यता के विभिन्न युगों का वर्गीकरण किया गया है।
सभ्यता के युग (धातुओं के आधार पर)
- पाषाण युग
- पूर्व पाषाण युग
- मध्य पाषाण युग
- उत्तर पाषाण युग
- ताम्र युग
- लौह युग
सभ्यता के समस्त उपकरणों का विकास इन युगों के भीतर हुआ है। ताम्र नामक धातु का पता लग जाने पर मानव ने पत्थर के हथियारों और उपकरणों का उपयोग बहुत कम कर दिया। फिर जब लौह नामक धातु का आविष्कार हुआ तो सभ्यता के विकास की गति और भी तीव्र हो गई और ताम्र का उपयोग कम होता गया। इस तरह साधनों में परिवर्तन के कारण सभ्यता का स्वरूप भी तीव्र गति से परिवर्तित होता गया। इन साधनों या उपकरणों के कारण मानव जाति की अर्थव्यवस्था भी बदलती गयी।
आर्थिक दृष्टि से सभ्यता के युग
- खाद्य-संग्रह युगीन सभ्यता
- शिकार युगीन सभ्यता
- कृषि युगीन सभ्यता
- औद्योगिक युगीन सभ्यता
राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से सभ्यता के युग
- कबीला युगीन सभ्यता
- राजतंत्र युगीन सभ्यता
- साम्राज्य युगीन सभ्यता
- लोकतंत्र युगीन सभ्यता
- समाजवाद युगीन सभ्यता
संस्कृति और सभ्यता का विकास
एक युग की सभ्यता पूर्ववर्ती की सभ्यता से इतनी भिन्न हो जाती है कि परिवर्तन को सारी परिवर्तन जाता है।
संस्कृति की धारा युग-युगान्तर ने थोडे-बहुत परिवर्तन के साथ समान गति से प्रथाहत होने वाली उस महानदी की तरह अपने उदगम से संगम तक पहुंचने के क्रम में निरन्तर अपना रूप जयती हुई भी एक ही बनी रहती है। जैसे कि गंगा में हरिद्वार, प्रयाग, अयी, पटना और गंगा-सागर आदि स्थानों पर उनके आकार-प्रकार में बहुत अन्तर है। नदी की धारा समान संस्कृति से भी एक अटल परम्परा होती है। जिस तरह की नदी में स्थान-स्थान पर विविध नदियाँ आकर उसे अपना जलदान देकर अपने को विलीन कर देती है, उसी तरह बनयती संस्कृति भिन्न कार्यों अपने सम्पर्क में आने वाली जन्य कागाजी संस्कृतियों को आत्मसात करती है।
इस प्रकार महान संस्कृतियां परस्पर आदान-प्रदान करती हुई अपने रूप को बदलती पर अपने स्वरूप को अक्षुण्ण बनाये रहती है। इस कारण संस्कृतियों का काल विभाजन सम्भव नहीं है, क्योंकि परवर्ती युगों की संस्कृतियों में पूर्ववर्ती युगों की संस्कृतियाँ समाहित रहती है। अत: संस्कृतियाँ क्रान्ति मूलक नहीं सामजस्यमूलक होती हैं।