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महान नारियां गांधारी कुंती और द्रौपदी

रंजना सिंह

गान्धारी, कुन्ती, द्रौपदी तीनों ही महान, पूज्य,ऐतिहासिक स्त्रियाँ जो श्राप और वरदान दोनों ही देने की क्षमता रखती थीं, महान कैसे बनीं और जीवन में विफल कहाँ हुईं। स्मरण करने पर ध्यान में आता है कि जिस ओर इनका तप था,उसकी सिद्धि तो इन्हें मिली,किन्तु जो पक्ष इनके ध्यान/तप से छूटे रह गए वे निर्बल रहते इनके दुःख के कारण बने।

गान्धारी

अपने चक्षुहीन पति के मनोभावों को समझने के लिए, जीवनभर की चक्षुहीनता स्वीकारना,दृष्टि का त्याग करना कोई साधारण बात नहीं थी, किन्तु इस कठोर पातिव्रत्य को देवी गान्धारी ने सहर्ष स्वीकारा। धृतराष्ट्र तथा कुरु वंश की आकांक्षा का मान रखते उन्होंने सौ प्रतापी पुत्रों का उपहार दिया और इस तप से ऐसी शक्ति पायी कि उनके कृष्ण को वंशनाश होने का श्राप भी उतना ही प्रभावी रहा जितना अपने पुत्र दुर्योधन के शरीर को वज्र बनाने का वरदान। किन्तु अपरिमित शक्तिमती तपस्वी सक्षम यह माता अपने सौ पुत्रों को सन्मार्गी न बना पायी,, क्यों?

क्योंकि सती गान्धारी ने अपने जीवन का धर्म “पति की चक्षुहीनता का अनुसरण” तथा “पति की सौ पुत्रों की कामना” तक ही सीमित समझ लिया था। चक्षुत्याग कर उत्तम पतिव्रता तो बना जा सकता है, किन्तु सफल माता बनना सम्भव नहीं। यदि गान्धारी जन्मजात चक्षुहीन होती तो बात और थी,किन्तु युवावस्था तक चक्षुओं की अभ्यस्त बुद्धि अनुभव के वे सूत्र नहीं पकड़ पाती जो जन्मान्ध पकड़ लेता है। एक पुत्र को सन्मार्ग पर चलाने के लिए तो माता को सौ नेत्र खोलकर रखने होते हैं, फिर सौ पुत्रों की भीड़। कम से कम दो खुली आँखें भी यदि प्रतिपल अंकुश को उपस्थित नहीं,तो क्या होगा?

और फलतः वही हुआ। पत्नी रूप में विजयी गान्धारी माता रूप में जीते जी सौ पुत्रों के शव वाली माता बनी। कृष्ण को श्राप देने का जो अतिरिक्त पाप उन्होंने लिया,सो लिया ही,जीवन के उत्तरार्द्ध में अन्तिम पलों तक अविराम उनकी सेवा में रत रहकर कुन्ती ने उनको कभी इस अपराधबोध से मुक्त नहीं होने दिया कि उनदोनों पतिपत्नी तथा उनके पुत्रों ने पाण्डवों, कुन्ती के साथ कितने अन्याय किये।सो पतिव्रता रूप में सिद्ध प्रसिद्ध पूज्य होते भी एक माता,महारानी और जेठानी रूप में गान्धारी विफल ही रहीं।

कुन्ती

यह तो सबको ज्ञात है कि कुन्ती कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री थी।सम्भवतः यही कारण हो कि कुन्ती में यदि सर्वाधिक उद्दात्त कोई भाव था तो वह वात्सल्य या कहें मातृत्व भाव ही था।अत्यन्त क्रोधी रूप में जगत्प्रसिद्ध ऋषि दुर्वासा की भी उन्होंने ऐसे मातृत्व भाव से सेवा की कि उन्होंने किशोरी कुन्ती को श्रेष्ठ सन्तान प्राप्ति हेतु मनोवांछित देवताओं के आवाहन और उनसे सन्तान प्राप्ति का सिद्ध मन्त्र प्रदान किया। उतावलेपन में उस मन्त्र का प्रयोग और कर्ण की प्राप्ति की कथा भी सबको ज्ञात ही है।

तो महाराज पाण्डु की पत्नी बनने से पूर्व कुन्ती माता बन चुकी थीं।अर्थात उनके व्यक्तित्व में सर्वाधिक प्रबल भाव था,तो वह वात्सल्य भाव ही था। इसी भाव के कारण पाण्डु द्वारा सन्तान देने में असमर्थ रहने के बाद भी कुन्ती के सन्तान सुख में कोई बाधा न आयी। तीन स्वयं के और दो माद्री के संतान की वास्तविक माता जीवनभर कुन्ती ही रहीं। माद्री भी मूल रूप से केवल पत्नी भाव में रही,तो पति के साथ ही उन्होंने अपना भी देह त्याग कर दिया।क्योंकि वे आश्वस्त थीं कि कुन्ती सभी पुत्रों को एक आँख से देखेंगी।

और कुन्ती, ज्येष्ठ पत्नी होते हुए भी उन्होंने पति के साथ स्वर्ग गमन नहीं किया,अपितु केवल माता बनकर दायित्व निर्वाह को रह गयीं और द्रौपदी से पाँचों भाइयों के विवाहोपरांत उन्हें अपनी पुत्रवधू को सौंपकर ही उनसे विलग हुईं।

यह उनका तप था कि एक से बढ़कर एक विषम परिस्थितियाँ आयीं पर न ही उनकी पाँचों सन्तानों के धर्म का क्षय हुआ,न ही जीवन का।यहाँ तक कि उनके पुत्र और पुत्रवधु स्वेच्छा से चलकर स्वर्ग की ओर गए,उससे पूर्व तक यम उन्हें छूने नहीं आये। इसलिए माता रूप में यदि किसी को विजयी कहा जा सकता है तो वे देवी कुन्ती ही हैं।

द्रौपदी

कहते हैं, देवी द्रौपदी का जन्म सामान्य रूप से नहीं अपितु यज्ञकुंड की धधकती अग्नि से हुआ था, इसी कारण उन्हें याज्ञसेनी भी कहा जाता है।हो सकता है यह किंवदन्ती हो, किन्तु इसे तो नकारा नहीं जा सकता कि द्रौपदी को जो जीवन मिला वह किसी धधकती अग्निज्वाला से कम नहीं था जिसमें जीवन भर, प्रतिपल वह जलती रही।किन्तु उनके तप की अग्नि में ही अंततः अधर्म जलकर भष्म हुआ।

पाँच पति साथ होते भी उस सती नारी,एक चक्रवर्ती सम्राट की साम्राज्ञी ने सर्वाधिक भीषण,घनघोर असहनीय अपमान पाया।एक सामान्य ब्याहता स्त्री जो सुख पाती है,वह भी इस नारी को सम्पूर्ण रूप में प्राप्त न हुआ। विवाह पूर्व तक पाँचों पाण्डवों को एक सूत्र में बाँधकर रखने का जो उत्तरदायित्व कुन्ती ने निभाया थ, उससे बड़ा दायित्व द्रौपदी को पत्नी बनकर निभाना पड़ा।माता बनकर अपने सभी सन्तानों को समान रूप से स्नेह देना जितना ही सरल स्वाभाविक है,एकाधिक पुरुषों की पत्नी बनकर यह निभाना उतना ही दुष्कर।किन्तु याज्ञसेनी ने यह दुर्लभ चुनौती जीती।

लाँछनाओं अपमान के साथ जैसे ही दाम्पत्य जीवन आरम्भ हुआ कौरव साम्राज्य बँटवारे के नाम पर पतियों के साथ एक तरह से राज्यनिकाला मिला,जहाँ खांडवप्रस्थ में बंजर धरती से आरम्भ करके इन्द्रप्रस्थ स्थापना एवं राजसूय यज्ञ तक की कठिन यात्रा द्रौपदी ने सफलतापूर्वक समपन्न किया।

सुख के दिन आरम्भ होते कि द्यूत सभा रच दी गयी जहाँ सम्पूर्ण निर्लज्जता से प्रदर्शित हुआ कि अधर्म का विस्तार कहाँ तक हो चुका है, प्रबुद्ध समर्थ लोगों तक की चेतना कैसे भ्रमित कुण्ठित हो गयी है। और कुरुसभा में उस घनघोर अपमान के बाद उस राजरानी ने धरा को अधर्मियों से रहित कर धर्म स्थापना का जो संकल्प लिया, हजारों वर्षों के लिए स्त्रियाँ सबला निष्कंटक हुईं।

देवांश पाँचों पाण्डव तो वस्तुतः कृष्ण और कृष्णा(द्रौपदी) के पंचास्त्र थे जिनके बल पर अधर्म नाश और धर्म स्थापना का महत कार्य होना था। विवाह से पूर्व से ही कृष्ण और द्रौपदी, इन दोनों को ज्ञात था कि सँसार में पसर चुके अधर्म के निस्तार क्रम में क्या क्या गतिविधियाँ होनी है,इस यज्ञाग्नि में उन्हें किस प्रकार अपने व्यक्तिगत सुखों और सगों की आहुतियाँ पग पग पर देनी है।

और इन्होंने वह दिया,तभी सृष्टि ने धर्मस्थापना का अपना ध्येय पाया। इन दोनों ने ही अपने आँखों के सामने अपने कुल का नाश देखा,पर अडिग अविचल स्थिर रहे।

पिता,भाई,पुत्र गान्धारी ने भी खोये और द्रौपदी ने भी,, किन्तु एक के हाथ हर प्रकार से रीते रहे,अंतिम श्वांस तक कलपने को वह अभिशिप्त रहीं तो एक ने सबकुछ खोकर भी सँसार को अधर्मियों अत्याचारियों से मुक्ति दिलायी और व्यक्तिगत दुःख के बाद भी धर्म का सन्तोष तो उनके पास रहा ही। इसप्रकार देखा जाय तो पुत्रवती केवल एक रहीं- देवी कुन्ती। भविष्य की माताओं के लिए उन्होंने जो आदर्श रखा,जिसे सन्तान सुख और परम सन्तोष की चाह हो,इनका अनुकरण कर सकते हैं।।

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